Tuesday 18 August 2015

मेरा स्वप्निल देश

अमर शहीदों ने अपने खून से जिसे सँवारा था,
कहाँ गया वो देश हमारा, जो हमको बेहद प्यारा था।

          गूँज उठी थी सन सत्तावन में, ललकार वो रानी झांसी की,
          खून खौल उठता है सुनके, भगत सिंह कि फांसी की।

तब नहीं कहीं पे हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई होते थे,
कहाँ गया वो समय जब सारे, भाई-भाई होते थे।

          तब नहीं कहीं भी अखबारों में, वहशी दरिंदे होते थे,
          कहाँ गए वो लोग जिनके नारे, "मातरम वन्दे" होते थे।

गांधी जी ने देश को एक, नया सबक सिखलाया था,
बिना जरा भी खून बहाए, लड़ने का पथ दिखलाया था।

          कृष्ण, बुद्ध, कबीर वो राम-राज्य, कहाँ पर चला गया,
          कहीं पुराणों के हाथों तो, नहीं इंसानों को छला गया?

आज सपने में दिखी झलक सी, एक देश जो सबसे न्यारा था,
शायद फिर से बन सके, वो देश, जो हमको बेहद प्यारा था।

नन्हे सपने

हम, तब जागा करते थे, जब सारी दुनिया सोती थी।
तब सपने बहुत बड़े थे अपने, जब आँखे छोटी छोटी थी।।

जो चाहते थे कर जाते थे, किस्मत भी साथ में होती थी।
तब सपने बहुत बड़े थे अपने, जब आँखे छोटी छोटी थी।।

दिन ढलते ही शौंक, कहानी सुनने का होता था अपना।
शौंक वो पुरे करने को, माँ तब साथ में सोती थी।।
तब सपने बहुत बड़े थे अपने……

रोते थे तब मनमर्जी को, यहाँ वहां की फ़िक्र कहाँ थी।
दुनियाभर की सारी चीज़ें, पापा की जेब में होती थी।।
तब सपने बहुत बड़े थे अपने……

लड़ते थे सारे यारों से, पर जात-धर्म की बात नहीं थी।
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में, सूरत सब एक सी होती थी।।
तब सपने बहुत बड़े थे अपने……